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याद की रहगुजर

शौकत कैफी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3769
आईएसबीएन :81-267-1082-9,9788126710829

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प्रस्तुत है शौकत कैफी के बयान...

Yad ki rah gujar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

 ‘याद की रहगुज़र’ शौकत कैफ़ी की वह दास्तान है जिसमें उनके शौहर उर्दू के मशहूर शायर और नगमानिगार कैफ़ी आज़मी और उनके बच्चों एक्ट्रेस शबाना आज़मी और कैमरामैन बाबा आजमी के खूबसूरत और दिलचस्प किस्से हैं। इसमें प्रगतिशील लेखक आन्दोलन से जुड़े हुए कवियों और लेखकों का ज़िक्र है। ऊँचे सामाजिक मूल्यों के लिए संघर्ष करने वाले किरदार हैं।

शौकत कैफी़ स्टेज और फिल्म की एक बहुत मँजी हुई और बेमिसाल अभिनेत्री भी हैं। ‘याद की रहगुज़र’ में उन्होंने इप्टा और पृथ्वी थियेटर से जुड़े हुए अपने दिनों के बारे में कई अनोखी बातें लिखी हैं। ‘याद की रहगुज़र’ शौकत कैफी़ के बहुरंगी अनुभवों का बयान है जिसमें जीवन के ठंडे और गरम मौसमों की तस्वीरें हैं। मानवमन का रोमांस है, हिम्मत और विजय की भावना है बहुत सादा लेकिन अर्थपूर्ण यह लेखन पाठक के दिल और दिमाग में अतीत से प्रेम और भविष्य के प्रति आस्था जगाता है।

 

-असग़र वजाहत

 

यह किताब मैं अपने दोनों बच्चों शबाना आज़मी और बाबा आज़मी के नाम मा’नून करती हूँ जो मुझे दुनिया की हर शै से ज़्यादा अज़ीज़ हैं।

 

एक लफ़्ज़े-तशक्कुर

 

 

मैं जब भी मुड़के देखती हूँ तो अपनी ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव याद करके कुछ हैरत भी होती है, कुछ खुशी भी। सोचती थी कि बीते दिनों के बारे में लिखूँ। बहुत दिनों तक सिर्फ़ सोचती ही रही। आख़िर एक दिन हिम्मत करके लिखना शुरू किया। मेरा बचपन हैदराबाद में गुज़रा है। हैदराबाद का कल्वर बड़ा रँगारंग है। वहाँ रंगों के नाम भी अंग्रेज़ी में नहीं उर्दू में होते हैं और बहुत ख़ूबसूरत होते हैं लेकिन मेरी ज़िन्दगी में जो रंग सबसे गहरा है वह कैफ़ी का रंग है और वह इस किताब में जगह-जगह बिखरा हुआ है। कैफ़ी के साथ मैंने एक भरपूर ज़िन्दगी गुज़ारी है, इसलिए लिखते हुए मुझे किसी मुबालगें1 से काम लेने की कोई ज़रूरत ही नहीं पड़ी। बीते दिन ज्यों के त्यों मैंने कागज़ पर उतार दिए।

इस किताब के सिलसिले में सबसे पहले मैं जावेद अख़्तर का शुक्रिया अदा करूँगी क्योंकि कैफ़ी के जाने के बाद मेरा दिल बिल्कुल उचाट हो गया था। मैंने यह किताब अधूरी ही छोड़ दी थी, लेकिन उन्होंने मुझसे इसरार करके इस किताब को मुकम्मल करवाया।
मेरी बेटी शबाना उस कप्तान की तरह है जो जहाज़ को अपनी काविश से मंज़िले-मक़्सूद तक पहुँचाता है। यही काम उसने मेरी किताब के साथ किया। अगर शबाना ने इतनी दिलचस्पी लेकर इस किताब के छपने का इंतिज़ाम न किया होता तो शायद यह मुसव्वदा2 मेरे सिरहाने ही पड़ा रह जाता।

मैं सुहैल अख़्तर की भी मम्नून3 हूँ, जिन्होंने इतनी मेहनत और तवज्जुह से कम्प्यूटर पर इस किताब को लिखा। उबैद आज़मी और ख़ुसूसन डॉ. ज़हीर अली की शुक्रगुज़ार हूँ, जिन्होंने इस किताब की एडिटिंग में मेरी बड़ी मदद की।
‘‘आभार, 1.अतिशयोक्ति, 2. पांडुलिपि, 3. आभारी।
नसरीन रहमान उर्फ़ चीनी का भी तहे-दिल से शुक्रिया अदा करना चाहूँगी, जिन्होंने इस किताब का अंग्रेज़ी में तर्जुमा1 किया है।
मैं सलमा सिद्दीक़ी की मश्कूर हूँ, जिन्होंने ‘एक तअस्सुर’ लिखकर मेरी इज़्ज़त-अफ़्जाई की।
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 1. अनुवाद।

 

-शौकत कैफ़ी

 

एक तअस्सुर1

 

 

मुझे दूसरों की ज़िन्दगी में झाँकना अच्छा लगता है, शायद कुछ और लोगों को भी अच्छा लगता हो। इसकी वज़ सिर्फ़ ताकझाँक या तजस्सुस2 के अलावा भी हो सकती है। अगर ऐसा न होता तो यह नाटक, नौटंकी, सिनेमा, बाइस्कोप, थियेटर और टेलीविज़न, हमारी ज़िन्दगी का अहम3 हिस्सा क्योंकर बन पाते ? यह तो extension है उस दास्तानगोई4, मुशायरों, बैतबाज़ी5, कठपुतली के तमाशों और रक़्सो-सुरूद6 की महफ़िलों का, जिसे इनसानों ने अमावस की सियाह रातों में, मुसीबतों के बोझ तले, उम्मीद की एक किरन, रोटी के एक टुकड़े, किसी चाँद-से मुखड़े और किसी रौशन मुस्तक़्बिल7 के इंतिज़ार और इस्तिक़्लाब8 में अपने दिल में बसा लिया हो। आप बीती और सवानेहउम्री9 भी इसी ज़ुम्रे में आती है। इसे मनोलोग या ख़ुदकलामी भी कहा जा सकता है। मग़रिबी अदब10 में इसकी मुतअद्दिद11 मिसालें मौजूद हैं लेकिन उर्दू अदब में इसका इस्तेमाल निस्बतन कम हुआ।

क़ाबिले-ज़िक्र12 बात यह है कि इस सिन्फ़13 में सिन्फ़े-नाज़ुक14 ने चन्द इज़ाफ़े15 किए। अपने महदूद16 मुतालआ17 और उससे भी कम वसाइल18 के बावुजूद चन्द ख़वातीन19 ने रोज़नामचे20 या ख़ुतूत21 के ज़रिए अपने और अपने माहौल और मुआशरे22 के बारे में बाहर की दुनिया से ‘‘साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं’’ के मिस्दाक़23, एक राबिता24 बरक़रार रखा और एक रिश्ता क़ाइम किया। उन्नीसवीं सदी के अवाइल25 में चन्द ख़वातीन ने अपने हालाते-ज़िन्दगी तहरीर किए।26 अहन नामों में मुहम्मदी बेगम (वालिदा27 इम्तियाज़ अली ताज़) और वालिदा अब्दुल क़ारिद ने उर्दू में इसकी शुरूआत की और नज़्र सज्जाद हैदह (वालिदा क़ुर्रतुलऐन हैदर) ने इस सिलसिले को आगे बढ़ाया।

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1.छाप, धारणा, 2. जिज्ञासा, 3. महत्त्वपूर्ण, 4. कथा सुनाना, 5. अन्ताक्षरी, 6. नाच-गाना, 7. भविष्य, 8. स्वागत, 9.आत्मकथा, 10. पश्चिमी साहित्य, 11.बहुत-सी, 12. उल्लेखनीय, 13.विधा, 14.स्त्री वर्ग, 15.वृद्धि, 16.सीमित, 17.अध्ययन, 18.साधन, 19.ख़ातून का बहु., महिलाएँ, 20.डायरी, 21.ख़त का बहु.पत्रों, 22.समाज, 23.चरितार्थ, 24.सम्पर्क, 25.आरम्भ काल, 26.लिखे, 27.माता।

क़ुर्रतुलऐन हैदर ने अपने मख़्सूस1 और मुन्फ़रिद2 स्टाइल में इस फ़न को नुक़्ता-ए-उरूज़3 तक पहुँचाया। पाकिस्तान में चन्द अहम आपबीतियाँ लिखी गई, जिनमें हमीदा अख़्तर रायपुरी और अदा बदायूनी की तसीनीफ़4 क़ाबिले-ज़िक्र हैं। ये अपनी-अपनी कहानियाँ लिखी तो गईं पाकिस्तान में, लेकिन दोनों ख़वातीन का माज़ी5 और मैका चूँकि हिन्दुस्तान से वाबस्ता6 है, जहाँ वो अपना बचपन छोड़ आईं। लेकिन उनकी यादें बग़ैर किसी कानूनी रुकावट के उनके साथ-साथ दबे पाँव एक नए मुल्क में रहने-बसने के लिए रवाना हो गईं। हिन्दुस्तान में हमीदा सालिम की सवानेह भी एक निहायत मोतबर7 और मुस्तनद8 तस्नीफ़ है। इस सिलसिले की एक निहायत अहम कड़ी किताबी सूरत में इस वक़्त मेरे सामने है ‘याद की रहगुज़र’। यह बेगम शौकत कैफ़ी की पचपन साला शबो-रोज़9 की वह दास्तान है जिसे सच पूछिए तो किसी तआरुफ़10 या तब्सिरे11 की क़त्अन ज़रूरत नहीं है। मैंने जब इसे पढ़ना शुरू किया तो बडी़ लापरवाही और बददिली से उस पर नज़र डाली, यह सोचकर ही माना शौकत कैफ़ी एक बहुत उम्दा आर्टिस्ट हैं, बारहा उनको स्टेज़ पर और फ़िल्मों में देख चुकी हूँ, अब भला उनको राइटर बनने की क्या ज़रूरत थी। लेकिन पहला बाब12 पढ़ते-पढ़ते ही मैं चौक गई। घबरा के मैंने इधर-उधर देखा कि कहीं मेरी हैरतो-इस्तेजाब13 और रश्को-हसद14 को कोई अनजाना कैमरा तो महफ़ूज़ नहीं कर रहा है।

शौकत कैफ़ी ने किताब की इब्तिदा15 अपने बचपन और अपने घरेलू माहौल से की जिसके बग़ैर इस आपबीती में वह रंगीनी, मिठास और शाइस्तगी16 न होती, जिसने शुरू से आख़िरी तक तमाम किर्दारों को एक डोर में पिरोए रक्खा। उनके घर का माहौल वैसा ही था जैसा कि उस अह्द17 में आमतौर के मुसलमान मुतवस्मित18 घरानों का होता था, जहाँ बाप की हैसियत एक सरपरस्त19 की होती और माँ औलाद की सेहत और सलामती के अलावा एक सख़्तगीर20 निगरा21 के ओह्दे22 पर फ़ाइज़23 होती। रोज़ी-रोटी की तगोदौ24 और बाहर की दुनिया से निबटना घर के मालिक के सुपुर्द होता और बच्चों, मुलाज़िमों25 और रिश्तेदारों और तीज-त्योहार और मआशी26 ऊँच-नीच को सँभालना माँ यानी मालकिन के हिस्से कर दिया जाता है।
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1.विशेष, 2. अद्वितीय, 3. चरम बिन्दु, 4. तस्नीफ़ की बहु., रचनाएँ, 5.अतीत, 6. संबद्ध, 7. विश्वसनीय, 8. प्रमाणित, 9. दिन और रात, 10. परिचय, 11. टिप्पणी, 12. अध्याय, 13. आश्चर्य, 14. ईर्ष्या, 15. आरम्भ, 16. उत्तमता, 17. काल, 18. मध्यमवर्ग, 19. अभिभावक, 20. तानाशाह समान, 21. संरक्षक, 22. पद. 23. आसीन, 24. खोज, चिन्ता, 25. नौकर, 26. आर्थिक।-

ज़िम्मेदारियों की इस तक़्सीम1 या समझौते से घरों में अमनो-अमान2 क़ाइम रहता था और ग़ैर-शुऊरी तौर पर3 माहौल पुरसुकून4 रहता। लेकिन इसमें कोई शक नहीं बेटे की हैसियत बेटी के मुक़ाबिले में अहम और मोतबर मानी जाती। लड़के की पैदाइश5 पर लड्डू बाँटे जाते और लड़की की विलाजत6 पर ‘अल्लाह की मर्जी़’ कहकर सब्र कर लिया जाता था। लेकिन शौकत ख़ुशनसीब थीं कि उनके वालिद रवायती7 वालिदैन8 में नहीं थे जो बेटे-बेटी में तफ़रीक़9 करते। उनके अब्बाजान का ऐसा क़ाबिले-क़द्र10 और दोस्ताना रिश्ता उस वक़्त तो क्या आज भी मुश्किल से मिलेगा। उनकी वालिदा सौमो-सलात11 की पाबंद थीं। अपनी औलाद की परवरिश और रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में भी तनदिही12 और सलीक़े से काम लेती थी। बहन-भाइयों की ज़िन्दगी में कहीं कोई ऊँच-नीच नहीं थी और सब एक-दूसरे के ज़ज्बात का लिहाज़ करते थे। इस ख़ुशगवार माहौल ने शौकत कैफ़ी के बचपन और लड़कपन में उनको कहीं किसी Complex का शिकार नहीं होने दिया और इसे घरेलू मुतवाज़िन13 फ़िज़ा ने उनको अपनी आइन्दा14 ज़िन्दगी को इन्तिहाई हिम्मत, सब्र और ज़हानत15 से बसर करने में भरपूर तआवुन16 और हौसला दिया, जिसे आगे चलके उन्होंने अपने बच्चों में बाँट दिया।
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1.बाँट, 2.सुख-चैन, 3.बिना जाने-बूझे, 4.शान्त, 5.जन्म, 6.जन्म, 7. पारम्परिक, 8.माता-पिता, 9.भेद, 10.आदरणीय, 11.रोज़ा-नमाज़, 12.तन्मयता, परिश्रम, 13.सन्तुलित, 14.आनेवाली, भविष्य, 15.विवेक, 16.सहयोग।



       

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